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घड़ा कैसा बने?-इसकी एक प्रक्रिया है। कुम्हार मिटटी घोलता, घोटता, घढता व सुखा कर पकाता है। शिशु, युवा, बाल, किशोर व तरुण को संस्कार की प्रक्रिया युवा होते होते पक जाती है। राष्ट्र के आधारस्तम्भ, सधे हाथों, उचित सांचे में ढलने से युवा समाज व राष्ट्र का संबल बनेगा: यही हमारा ध्येय है। "अंधेरों के जंगल में, दिया मैंने जलाया है। इक दिया, तुम भी जलादो; अँधेरे मिट ही जायेंगे।।" (निस्संकोच ब्लॉग पर टिप्पणी/अनुसरण/निशुल्क सदस्यता व yugdarpan पर इमेल/चैट करें, संपर्कसूत्र- तिलक संपादक युगदर्पण
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Monday, January 17, 2011

मनुपैन्ज़ी होते यदि हम वृद्ध न होते . –––– विश्वमोहन तिवारी, एयर वाइस मार्शल (से .नि)

"अंधेरों के जंगल में,दिया मैंने जलाया है!इक दिया,तुम भी जलादो;अँधेरे मिट ही जायेंगे !!"-

बुढ़ापा अर्थात बीमारियां
, अस्वस्थता, कमजोरी, कष्ट तथा दुख! बुढा.पे का कारण है ‘इंद्रियों तथा यौन शक्ति का कमजोर होना’ जो कष्ट तो बढ़ाता ही है मानसिक तनाव पीड़ा तथा दुख भी बढ़ाता है, और उम्र तथा गरीबी इन को और बढ़ाती हैं। बुढ़ापा अर्थात अभिशाप। बुढ़ापे में कष्ट तो हो सकते हैं किन्तु यह दुख क्यों ।अभिशाप क्यों ।यदि जीवन का ध्येय उपभोक्तावाद है तब जीवन का अर्थ उपभोग की वस्तुएं खरीदकर उनके द्वारा सुख लूटना है। किन्तु बुढ़ापे में जब इंद्रियां शिथिल होने लगती हैं तब वस्तुओं से आनन्द नहीं मिलता। एक तो आर्थिक रूप से कमजोर हों और जब दिखाई नहीं देगा या सुना नहीं देगा तब देखने सुनने का सुख तो गया . किन्तु इन सुखों के जाने का दुख बहुत व्यापता है। तब क्या आश्चर्य कि वृद्ध लोग अपने युवा दिनों की बातें करते हैं या फिर अपने कष्टों और दुखों की।तब यह तो स्वाभाविक है कि ऐसा निरर्थक . शिथिल इंद्रियों तथा बीमारियों वाला बुढ़ापा अभिशाप ही माना जाएगा .प्रकृति पर भी व्यर्थ का भार और उपभोक्तावदी समाज में बुढ़ापे के प्रति घृणा ही उपजेगी। बुढापे की क्या अच्छाइयां हो सकती हैं सिवाय इसके कि यह हमें मृत्यु की पूर्वसूचना ही देता है।दूसरी तरफ 'द यू टर्न्स आफ हैपिनैस ' वैब साइट में आंकड़े दिये गए हैं जो यह दर्शाते हैं कि कि युवा तथा वृद्ध अधेड़ों की अपेक्षा अधिक सुखी होते हैं।' वैसे भी सुख की अवधारणा अत्यंत जटिल है और उन्हीं आंकड़ों से अपनी अपनी समझ के अनुसार भिन्न भिन्न निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं।

हमें वृद्धावस्था की समस्याओं पर भौतिक आर्थिक . मानसिक तथा सांस्कृतिक दृष्टियों से विचार विमर्श करना है।

स्वास्थ्यविज्ञान की कृपा से मनुष्य की औसत आयु बढ़ रही है।क्या यह खुश खबरी है। जैरॉण्टॉलॉजिस्ट वैस्टनडॉर्प लिखती हैं कि जब हमारी जीवन की परिस्थितियां बेहतर होती हैं .तब मृत्युदर कम होती है . शीघ्र प्रजनन के विकास संबन्धी दबाव कम होते हैं .तथा अतिरिक्त संसाधन शारीरिक रखरखाव पर लगाए जा सकते हैं जिससे औसत उम््रा्र तथा अधिकतम आयु बढ़ती हैं। साथ ही सभी विकसित देशों में देखा गया है कि औसत उम्र के बढ़ने से बुढ़ापे संबन्धी बीमारियां भी बढ़ती हैं। पिछली सदी के अन्तिम बीस वर्षो में यूके में महिलाओं की आयु में चार वर्षो की वृद्धि हुई है किन्तु स्वस्थ्य जीवन की वृद्धि केवल दो वर्ष की हुई है। अस्वस्थ्य जीवन की अवधि स्वस्थ्य जीवन की अवधि से कम बढ़ रही है।अर्थात आयु का बढ़ना अच्छाई ही अच्छाई नहीं है, क्योंकि तब बुढ़ापे के कष्ट और अधिक समय तक भुगतना पड़ेंगे। विकसित देशों में औसत उम्र तो बढ़ रही है, बूढ़ों का अनुपात भी तेजी से बढ़ रहा है।क्या 21वीं सदी रागों में डूबी होगी या प्रौद्योगिकी रोगों का अन्त कर देगी?

पिछली अर्धशताब्दी के मत्र्यता के आंकड़ों के विश्लेषणों से यह निष्कर्ष निकलता है कि आयु की कोई जैविक सीमा नहीं है। प्रचलित परिस्थितियों में हम लोग दीर्घ आयु लेकर अस्वस्थ्य ही रहेंगे।” वैस्टनडार्प आगे कहती हैं . “ संचित हुई आण्विक तथा कोशिकीय स्तर पर लगी चोटें जीवों की कोशिकाओं तथा ऊतकों के कार्यों में त्रुटियां पैदा करती हैं जिनके कारण कमजोरियां, रोग तथा मृत्यु होती हैं। जब तक उम्र लम्बी नहीं हुई थीं . प्रजनन आयु तक शरीर को प्रजनन योग्य रखने के अतिरिक्त उसके रखरखाव पर प्रकृति को खर्च करने की कोई आवश्यकता नहीं थी तथा प्रजनन की आयु के बाद तो बिलकुल ही नहीं थी।मानव की आयु का विकास प्रजनन की उम्र तक के पर्याप्त स्वस्थ्य रहने के लिये हुआ है. इससे अधिक क्षमता रोगों से लड़ने के लिये जैव विकास के कार्यक्रम में नहीं है।रोगों से लड़ने की क्षमता की कीमत पर प्रजनन उत्पादकता बढ़ाई गई है।ऐसा नहीं है कि आयुप्रभवन पर पर्यावरण तथा आनुवंशिकता का नियंत्रण नहीं है किन्तु यह पूर्वनिर्धारित भी नहीं है और न अवश्यम्भावी है।मनुष्य की औसत आयु लगातार बढ़ रही है। और हम लोग निकट भविष्य में अधिक वर्षों तक अस्वस्थ्य रहेंगे।मनुष्य की बढ़ती आयु विकसित देशों के लिये बड़ी चुनोती होगी।”

आयुर्विज्ञानी लगातार वृद्धावस्था के रोगों के लिये औषधियों के आविष्कार कर रहे हैं। वे बेहतर जीवनशैली खोज रहे हैं।हम आशा कर रहे हैं कि इक्कीसवीं सदी में रोग नहीं होंग . वरन वृद्धों के शरीर का कायाकल्प होने लगेगा।दण्ड कोशिका प्रौद्योगिकी तथा जैनॉमिक्स स्वास्थ्य में अकल्पनीय उन्नति लाएंगे।नैनो, सूचना तथा संचार प्रौद्योगिकियां जीवन के सुभीते बढ़ाएंगी, हमारी क्षमताएं समुन्नत करेंगी, और जीवन को अधिक आरामदेह बनाएंगी। किन्तु यह विश्व की आबादी को 6 से बढ़ाकर 9 अरब कर देंगी जो पृथ्वी पर बोझ बढ़ाएंगे .वैश्विक तापक्रम बढ़ाएंगे, ध्रुव प्रदेशों के हिम को पिघला देंगे, और प्रलय जैसी स्थिति पैदा करेंगे।चारों तत्वों यथा आकाश .पृथ्वी . जल तथा वायु को अत्यधिक प्रदूषित करेंगे। नए रोगों का आक्रमण होगा . कैंसर जैसे रोगों की महामारी होगी।गरीबों के लिये बुढ़ापा और भी दुखदायी होगा।धनी व्यक्ति की मदद के लिये संतान न सही . रोबॉट्स होंगे। क्या हम प्रौद्योगिकी को अभिशाप सिद्ध कर रहे हैं।प्रौद्योगिकी भली सेविका है किन्तु स्वामिनी अधिक क्रूर है।विज्ञान अच्छा कार्य कर रहा है किन्तु उसके पास मानवता की ओर ले जाने वाला दर्शन नहीं है।हमारे ऋषियों ने वह दर्शन हजारों वर्ष पूर्व दे दिया था।

वृद्धावस्था को बेहतर बनाने के लिये समाजशास्त्री क्या सोच रहे हैं।.उनके पास समस्यों के सतही हल ही नजर आ रहे हैं।उदाहरण के लिये वे कहते हैं कि वृद्धों को अकेलेपन से दूर रहना चाहिये क्योंकि अकेलेपन से अवसाद तथा अन्य दुर्दशाएं होती हैं . वृद्धों को मनपसंद गतिििवधियों में हिस्सा लेना चाहिये जो उन्हें प्रफुल्ल बनाएगी। वे कहते हैं कि “अपने पिछले सुनहरे क्षणों का आस्वाद लें और वृद्धावस्था के लिये आरामदेह गद्दा बना लें . . . ..वृद्धों को सुरुचिपूर्ण वस्त्र पहनना चाहिये .क्लब जाना चाहिये . नृत्य तथा गान में सक्रिय भाग लेना चाहिये . उन्हें नियमित व्यायाम कर अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखना चाहिये तथा पौष्टिक भोजन करना चाहिये।” यह सुझाव थोड़ी दूर तक ही जा सकते हैं क्योंकि एक तो यह समस्याओं के मूल में नहीं जाते और दूसरे इसमें कठिनाइयां आती हैं।पुराने मित्र उपलब्ध नहीं होते . नए मित्र बनाना कठिन काम है . बाहर निकलने में असुविधाएं होती हैं। घर में जो पौत्र पौत्रियां होना चाहिये जिनसे उन्हें प्रेम होता है .वे आज के संकुचित परिवारों में नहीं मिलते .वृद्ध जब बीमार पड़ते हैं तब दवाइयां तो मिल सकती हैं किन्तु जो स्नेहपूरित सान्त्वनाएं अपनों से मिल सकती हैं . वे नहीं मिलतीं। डॉ .दिलीप जैस्ते का कथन है कि कोई अच्छी तरह वृद्धावस्था की तरफ जा रहा है इसकी सामान्य पहचान है उनमें रोग और अक्षमताओं का कम होना। किन्तु उनके इस अनुसंधान िि का निष्कर्ष है कि वृद्धावस्था के प्रति स्वयं वृद्धों के दृष्टिकोण का महत्व पारम्परिक सफलता तथा स्वास्थ्य की पहचान से भी अधिक होता है। सही दृष्टिकोण का विकास कैसे हो . इस पर बाद में चर्चा करेंगे।

'हैपिनैस इन ओल्ड एज' वैब साइट सुझाव देती है : “ वृद्वावस्था एक बैंख खाते की तरह है. . . .आप उतने में ही से निकाल सकते हैं जितना आपने जमा किया है।इसलिये मेरा सुझाव है कि अपने खाते में बहुत सारा सुख जमा करें।” सुख की अवधारणा की समझ उम्र के साथ थोड़ी बहुत बदलती रहती है। इसलिये पिछली यादें कोई आवश्यक नहीं कि सुख पहुचावें।और इस सुझाव के मानने पर तो भूतकाल में रहना कहलाएगा।जीवन तो वर्तमान में जीना है।

उसी साइट में से एक और सुझाव . “सुख तो पहले से ही चुन लिया जाता है।यह कमरा मुझे पसंद है या नहीं यह कमरे की सजावट पर निर्भर नहीं करता. वरन इस पर कि मंै अपना मन किस तरह सजाती हूं । म्ंौने यह कमरा पहले से ही पसंद कर लिया है।. . . .” यथार्थ का स्वीकार सुख के लिये आवश्यक गुण है . किन्तु तभी कि जब उसे समुन्नत करने के लिये पूरा प्रयास किया जा चुका हो। अन्यथा कल्पना का ही सुख लूटा जा सकता है।हम देखते हैं कि ये सुझाव ठीक हैं किन्तु पर्याप्त गहराई लिये नहीं हैं।इनसे स्वकेंद्रित समाज में वृद्धों को सुख शान्ति नहीं मिल सकती।

हम जानते हैं कि वृद्धावस्था में शारीरिक शक्तियां क्षीण होती हैं बीमारियां हो सकती हैं . इंद्रियों के क्षीण होने से वस्तुओं में 'स्वाद' नहीं बचता . निरर्थकता का अनुभव भी हो सकता है। हमें अपनी शारीरिक शक्तियों के क्षीण होने पर कष्ट तो हो सकता है, किन्तु दुख क्यों ? क्या इस दुख से बचा जा सकता है . इसका उत्तर हमारी जीवन दृष्टि पर निर्भर करता है। जिनके जीवन का अर्थ ही इंद्रियों के द्वारा भोग है, इंद्रियों के क्षीण होने से उन्हें निश्चित ही जीवन निरर्थक लगने लगता है और वे दुखी होते हैं। यह दुखद अनुभव भोगवादी, गरीब, और उसे जिसने जीवन को विस्तृत दृष्टि से नहीं देखा हो, अधिक होता है। भोगवादी समाज में बूढ़ा न केवल निरर्थक होता है, वरन अवांछनीय माना जाता है, उसके साथ मानवीय व्यवहार भी नहीं होता। इंद्रियों तथा स्वास्थ्य के क्षीण होने के दुख के साथ यह अमानवीय या संवेदना शून्य व्यवहार मनुष्य को कहीं अधिक दुख देता है।

पश्चिम में . और अब तो सारे संसार में भोगवाद की जड़ें बहुत गहरी जमी हैं। प्रसिद्ध उपन्यासकार सॉमरसैट मॉम को एक गोष्ठी में वृद्धावस्था के लाभ पर भाषण देना था। वे बोले – वृद्धावस्था के लाभ हैं । थोडा. और सोचने के बाद बोले – वृद्धावस्था के अनेक लाभ हैं। फिर और सोचकर बोले – वृद्धावस्था के बहुत लाभ हैंऌ और फिर बैठ गए। अर्थात उन्होने रोचक शैली में घोषित कर दिया कि वृद्धावस्था के कोई लाभ नहीं हैं।कवि विलियम बटलर येट्स की एक कविता है, ‘द् लैंड आफ़ माई हार्ट्स डिज़ायर', इस कविता में बूढों. का दयनीय चित्रण है–' वे धार्मिक तथा रूखे होते हैंऌ उनकी बुद्धिमता चालाकी में ढल जाती हैऌ वे कडुआ बोलते हैं। अतएव कवि ऐसा परी लोक चाहता है जहां बूढे ही न हों।' एब्रहम लिंकन की प्रसिद्ध उक्ति है, ‘ओल्ड इज़ गोल्ड’ किन्तु ऐसे विवेकशील विद्वान वहां अपवादरूप ही मिलते हैं।एल्डस हक्सले का उपन्यास ‘ब्रेव न्यू वर्ल्ड’एक आदर्शसमाज की कल्पना करता है। उसमें मनुष्य को वृद्धावस्था के कोई कष्ट नही होते, यौन शक्ति रखते हुए आयु पूरी होने पर मृत्यु होती है! वे शराब कितनी भी पी लें, उऩ्हें हैंगओवर नहीं होता!यह दर्शाता है कि पश्चिम में भोगवादी जीवन दृष्टि कितनी गहरी है।बोस्टन में इतिहास के प्रोफैसर कर्नल एन्ड्रू बैसेविच का कथन है,"यूएसए भोगवादी देश है और यही उसकी सबसे बड़ी समस्या है"

एल्विन टॉफ्लर ने लिखा है कि ज्ञान की तेजी से बढ़ती दर के कारण वृद्ध लोग तारीख बाहर हो जाते हैं।इसलिये भी पश्चिम में वृद्धों का सम्मान कम होता है . यछपि शासन वृद्धों को अनेक सुविधाएं देता है। यह बेचारे वृद्धों के लिये सुविधाजनक तो है किन्तु उन्हे सुखी करने के लिये पर्याप्त नहीं। यूएसए के 98 प्रतिशत वृद्धाश्रमों में वृद्धों के साथ अमानवीय व्यवहार होता है।यथार्थ यह है कि वृद्धों को अपनी संतान से अपेक्षित प्रेम नहीं मिल पाता . समाज भी निरर्थक मानकर उनकी परवाह नहीं करता। उनके साथ ऐसा व्यवहार आधुनिकता के नाम पर. पारम्परिक मूल्यों के स्थान पर प्रगतिशीलता के नाम पर होता है।ब्रिटिश समाचार पत्र गार्जियन के सहायक सम्पादक मैलकम डीन कहते हैं, ‘वहां एजिज़म (यवृद्धभेद)रेसिज़म (यरंगभेद)की तरह ही फैला हैै।क्या यह प्रमाणित नहीं करता कि जब तक समाज में भोगवाद है वृद्ध अकेलापन तथा पीड़ा और दुख भोगेंगे ही।

भोगवादी समृद्ध पश्चिम में अनुत्पादक वृद्धों की संख्या में बढ़त ‘संभावित अवलम्ब अनुपात’ के कारण आर्थिक चुनौतियां पैदा कर रहा है। जापानव् िमें वृद्धों की उम्र में सर्वाधिक बढ़त हुई है।2025 तक जापान की 73 प्रतिशत आय मुख्यतया वृद्धों के कल्याण तथा पैन्शन पर खर्च होगी।पश्चिम म्ों वृद्धावस्था के शारीरिक तथा आर्थिक पक्षों पर जितने प्रयास हो रहे हैं, उतने संवेदन पक्ष पर नहीं।और प्रौद्योगिकी में अग्रणी पश्चिम के अधिकांश समृद्ध वद्ध भी संवेदनाशून्य जीवन व्यतीत कर रहे हैं क्योंकि उनकी संतान उनसे वर्ष में एक दो बार ही मिलने आती हैं, उनके मित्र बिछुड़ चुके होते हैं। यद्यपि वहां समृद्धि, कत्र्तव्य निष्ठा तथा र्ईमानदारी भारत से अधिक है तब भी अधिकांश वद्धाश्रम वृद्धों की समस्या से भरे पड़े हैं। हम भी उसी दिशा में जा रहे है।

अंधानुकरण किसी का भी हो अवांछनीय है।फिर भोगवाद का अंधानुकरण तो दुखदायी ही है।पश्चिम के अंधानुकरण का ही परिणाम है कि आज हमारे समाज में वृद्धों के प्रति जो व्यवहार देखने में आ रहा है वह न केवल निंदनीय है वरन हमारी मानवीय संस्कृति के प्रतिकूल है और समाज में दुख को बढ़ाने वाला है। अनेक युवा कहते हैं, ‘यदि हमारे माता पिता ने हमारा लालन पालन किया है तो कोई एहसान नहीं किया है, उन्होने पैदा किया है तो वे लालन पालन भी करें, हम भी अपनी संतान का करेंगे। बुढ़ापे के लिये उन्हें अपना प्रबन्ध करना था, नहीं किया तो वे युवा वर्ग पर क्यों अपना वजन लादना चाहते हैं! आज जमाना बदल गया है, हम कृषि संस्कृति में नहीं रह रहे हैं।बूढे. लोग तो आउट ऑफ डेट हैं अनुत्पादक हैं, उनका हमारे लिये कोई उपयोग नहीं है, वे अपना बुढ़ापा चाहे जैसे काटें, हमारे आधुनिक जीवन में अपनी अतृप्त इच्छाओं तथा दकियानूसी मान्यताओं के कारण बाधाएं न डालें।’ वे युवा भोगवादी हैं जो अपने सुख के लिये उन्हें वृद्धाश्रम में भरती करा देते हैं। ऐसा व्यवहार हमारे युवा वर्ग के दिमाग का दिवालियापन दिखलाता है, उनकी पाश्चात्य संस्कृति की गुलामी दर्शाती है। साथ ही यह सोच भी कि ‘माता पिता ने हमारा बचपन में लालन पालन किया है तथा वृद्धावस्था में वे असहाय हैं, अतः हमें उनकी मदद करना चाहिये’, भी वास्तव में गलत है!

बुढ़ापे के डर में एक कारण उसका मृत्यु से सम्बन्ध भी होता है।विज्ञान मृत्यु के कारणों की खोज कर रहा है जिसके लाभ होंगे।किन्तु मृत्यु के कारण समझने पर भी मृत्यु का भय तो रह ही सकता है।श्री अरबिन्द (विचार एवं झाँकियां)कहते हैं कि, “मृत्यु वह प्रश्न है जिसे प्रकृति ‘जीवन’ के समक्ष बार बार प्रस्तुत करती है ओर उसे स्मरण कराती है कि उसने अभी तक स्वयं को नही समझा है। मृत्यु द्वारा पीछा किये जाने पर वह पूर्ण जीवन के प्रति जागता है ओर उसके साधन एवं संभावना की खोज करता है।”

कोशिकाओं का समय के साथ क्षीण होना एक प्राकृतिक नियम है, किन्तु क्या बुढ़ापे का जीवन अनिवार्य है ? मानवों के विपरीत, जानवर प्राकृतिक परिस्थितियों में बूढा. हो ही नहीं पाता, क्योंकि शैशव के कुछ काल को छोड़कर उन्हें अपना भरण पोषण स्वयं करना होता है। और जैसे ही वे अपना भरण पोषण और अपनी रक्षा करने में थोडा. ही अक्षम होते हैं, जीवित नहीं बचते। मनुष्य तथा अन्य जानवरों में यह बड़ा अंतर है कि जानवरों के सीखने की क्षमता बहुत सीमित होती है अतः उनका जीवन जन्मप्रदत्त क्षमताओं पर निर्भर करता है। चिम्पैन्जी मनुष्य का अन्य जातियों में अत्यंत निकट का संबन्धी है। उसके जीन्स हमारे जीन्स से केवल 2 प्रतिशत ही कम हैं। उसकी मादा 10, 12 वर्ष की आयु से प्रजनन प्रारंभ करती है, और उसकी प्रजनन क्षमता या युवावस्था चालीस वर्ष की उम्र तक ही होती है, और उसकी अधिकतम आयु भी लगभग 40 वर्ष की होती है।तुलना के लिये वनमानव गौरिल्ला की अधिकतम आयु 35 वर्ष ही है और उसकी मादा भी 30 या 32 वर्ष की उम्र तक प्रजनन करती है। लगभग इतनी ही आयु तक मानव स्त्री की भी उच्चकोटि की प्रजनन क्षमता होती है। तब मानव क्यों इससे लगभग चालीस पचास वर्ष और अधिक जीवित रहता है?

डारविन के जैव विकास सिद्धान्त के अनुसार, यदि मोटी तौर पर कहें, विश्व की प्रत्येक प्रजाति अपनी संख्या बढ़ाने में लगी रहती है। अपनी संख्या बढ़ाने की एक सरल विधि के अनुसार अपनी संतान अधिक से अधिक संख्या में पैदा की जाए और जब तक बन सके की जाए।'मदर हाइपोथिसिस' 'अर्थात 'माता परिकल्पना' के अनुसार एक प्रश्न उठता है कि मानव स्त्री साठ वर्ष की उम्र के बाद जब कि सबसे छोटी संतान बीस वर्ष की होकर लगभग स्वतंत्र जीवित रह सकेगी . क्यों लगभग सौ वर्य की उम्र तक जीवित रह सकती है। तब क्या वह परिवार पर और प्रकृति पर अनावश्यक भार नहीं बन जाती ।

जीरियैट्रिशन विलियम थामस लिखते है, ‘आफ्रिका के गाम्बिया की जनजातियों के अध्ययन में यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन के नृशास्त्रियों ने देखा कि नानी की मदद वाले प्रजननों में शिशुओ की अतिजीतिवता (जीवित रहना) नानी की मदद न मिलने वालों की अतिजीविता की अपेक्षा 50% अधिक थी’। ऐसे अवलोकन फिनलैंड तथा कैनेडा के औद्योगिक युग के पूर्व के आंकड़ों द्वारा भी प्रमाणित होतेहैं।अर्थात 80 वर्ष की उम्र तक वृद्ध स्त्रियां न केवल अपनी संतान के जन्म तथा विकास में वरन संतान की संतान के भी जन्म तथा विकास में प्रभावी मदद कर सकती हैं। प्रजनन में मदद करने के अतिरिक्त शिशुओं को बेहतर पौष्टिक आहार देने में भी मदद कर सकती हैं। इन अवलोकनों के आधार पर नृशास्त्री क्रिस्टिन हॉक ने 'ग्रैन्ड मदर हाइपोथीसिस” “मातामही परिकल्पना” प्रस्तुत की।वे कहती हैं .कि यदि एक मां 60 वर्ष की उम्र तक प्रजनन करती और 80 वर्ष की उम्र तक जीवित रहती अर्थात केवल अपनी संतान की ही देखभाल करती रहती तब उसके जीन्स की अतिजीविता उतनी नहीं बढ़ती जितनी कि अभी बढ़ रही है। यह कैसे?

स्त्रियां 40 वर्ष की उम्र से कमजोर होने लगती हैं . जबकि प्रजनन के लिये मां का पूर्ण स्वस्थ्य होना आवश्यक है।आंकडे. दर्शाते हैं कि 40 वर्ष की उम्र के बाद की माताओं के बच्चों में कमजोरियां देखने मिलती हैं तथा मृतशिशु के जन्म तथा गर्भपात भी अधिक मिलते हैं . और अक्सर मां भी नहीं बच पाती हैं। इसलिये यदि मां अपने बच्चे 40 वर्ष की उम्र के बाद सफलतापूर्वक नहीं पैदा कर सकती तब बेहतर है कि वह अपनी पुत्रियों के प्रजनन में मदद करे और कम से कम 25 प्रतिशत अपने जीन्स का प्रसार करे।अर्थात वृद्ध स्त्रियों पर संसाधन व्यर्थ ही खर्च नहीं होते वरन बहुत लाभदायक होते हैं।

पितामह अपने लिये संसाधनों का अर्जन नहीं कर सकते . इसके लिये उन्हें अपनी संतान पर निर्भर रहना पड़ता है। और मानव ही ऐसा जानवर है जो पिता माता तथा बच्चों आदि के लिये अतिरिक्त संसाधन पैदा कर सकता है। इसलिये अपनी संतान की अतिजीविता बढ़ाने के लिये वह सहर्ष अपने वृद्ध माता पिता तथा पत्नी को सहारा दे सकता है। यही जैव विकास का कारण है कि परिवार के आपसी संबन्ध जैविकरूप से सुदृढ़ हुए हैं।अन्य जानवरों की तरह यदि मानव भी अतिरिक्त संसाधन पैदा नहीं कर सकता होता तब 'ग्रैन्ड मदर हाइपोथीसिस शायद ही सम्भव हो पाती।ग्रैन्ड मदर हाइपोथीसिस शिकारीक्ष् िफलाहारी जातियों के जीवन पर भी खरी उतरती है .यद्यपि ग्रैन्ड मदर हाइपोथीसिस पर वाद विवाद चलते रहते हैं।

यह भी एक रुचिकर तथ्य है कि चिम्पैन्ज़ी . गौरिल्ला में भी शिशुओं के बीच का न्यूनतम अंतराल लगभग 5 वर्ष है। उनके शिशु लगभग 4 वर्ष माता पर पूर्ण निर्भर करते हैं। जबकि मानव शिशु परिवार पर लगभग 20 वर्ष तक निर्भर करते हैं।किन्तु लगभग 1 वर्ष की आयु के बाद जब शिशु मां के दूध पर निर्भर करना छोड़ देता है .तब दादी या नानी उस शिशु की देखभाल में अच्छी खासी मदद कर सकती हैं। और इस तरह वह उस मां को एक और शिशु के जन्म के लिये स्वतंत्र कर सकती है।इस तरह मनुष्यों में शिशुओं के बीच का न्यूनतम अंतराल लगभग डेढ़ वर्ष का हो सकता है। और मनुष्य की स्त्री अपने प्रजनन काल में 12 से 13 बच्चों को जन्म दे सकती है।जब कि चिम्पैन्ज़ी या गौरिल्ला की मादाएं अपने जीवन काल में लगभग 4 बच्चे ही पैदा कर सकते हैं। किस्टिन हॉक बल देकर कहती हैं कि “जो गुण हमें एप्स अर्थात कपियों से अलग करता है वह यह नहीं कि हमारी पूर्ण आयु की तुलना में प्रजनन की अधिकतम आयु कमतर हुई है . वरन यह कि अन्य जानवरों में वृद्धावस्था नहीं है।”

इस विषय पर अनेक दृष्टियों से अनुसंधान किये जा रहे हैं यथा . अतिजीविता तथा संसाधनों के प्रभावी उपयोग के संबन्ध एक तरफ और दूसरी तरफ दीर्घ जीवन . बुद्धि तथा भोजन के आपसी सम्बन्धों की दृष्टि से।यह देखा गया कि मातामहीक्ष्व् िपरिकल्पना इन सम्बन्धों को समझाने में भी पूरी खरी उतरती है।' पूरे वजन को बिना खास बढ़ाए . मस्तिष्क क्ष्व्के वजन का बढ़ना' एक और इसी अनुसंधान का उदाहरण है।यदि मनुष्य के मतिष्क का वजन बढ़ाने के लिये उसके शरीर का वजन भी बढ़ाना पड़ता तब अनेक समस्याएं खड़ी हो जातीं।एक तो उसे अधिक भोजन की आवश्यकता होती .तब कि उस काल में बिना उपयुक्त हथियारों के जब पर्याप्त शिकार करना तथा फल इकट्ठे करना ही कठिन था।और मस्तिष्क स्वयं ही अपने ऊपर अपने वजन के अनुपात में कहीं अधिक ऊर्जा खर्च करता है।अतएव बिना वजन बढ़ाए भी . बड़े मस्तिष्क के लिये अधिक आहार की मांग शरीर के वजन में कमी की मांग कर रही थी।यह तब संभव था कि जब अधिक ऊर्जापूरित आहार पर्याप्त मात्रा में मिल सकता ताकि पेट का वजन कम किया जा सकता। बेहतर आहार की खोज के लिये बेहतर मस्तिष्कक्ष्व् िकी आवश्यकता थी।इस तरह मस्तिष्क तथा पेट ने आपस में सहयोग किया।काश कि आज भी मस्तिष्क ओर पेट में ऐसा सहयोग होता . तब माटापे की समस्या न खड़ी होती।खैर, बेहतर मस्तिष्कि के विकास के लिय तथा उपयोग करना सीखने के लिये लम्बे कैशोर्य की आवश्यकता है। अर्थात बच्चों की अपने संयुक्त परिवार पर तथा समाज पर निर्भरता भी बढ़ गई।

इसके पहले कि अधिक बड़े मस्तिष्क वाला शिशु पैदा हो सके. एक और महत्वपूर्ण विकास की आवश्यकता थी।लगभग 20 लाख वर्ष पहले मनुष्य के पूर्वज आस्ट्रैलोपिथैकस की मादा पुरुष से बहुत छोटी हुआ करती थी।चिम्पैन्ज़ी तथा गौरिल्ला की मादाएं भी नर की तुलना में बहुत छोटी होती हैं। यदि बड़े मस्तिष्क वाले अनेक बच्चे पैदा होना है तब स्त्री के शरीर को भी अधिक बड़ा तथा सशक्त होना जरूरी है।ऐसा विकास कुछ लाख वर्षों में हुआ जैसा कि ऑस्ट्रैलोपिथैकस से होमो एर्गास्टस और फिर होमो इरैक्टस के विकास में देखा जा सकता है। बड़ी स्त्री बडे. मस्तिष्क वाले शिशु को जन्म दे सकती है।आधुनिक शिशु का मस्तिष्क जन्म के समय 400 मि .लि .का होता है . जो विकास पश्चात 1200 मि .लि . का हो जाता है।।प्रकृति ने संभवतः इससे बड़े मस्तिष्क की आवश्यकता नहीं समझी।मेरे ख्याल में तो इतने मस्तिष्क ने ही विकास की बागडोर अपने हाथ में छीन ली है और सभी को खतरे में डाल रहा है। अस्तु, 400 से 1200 मि.लि. की विकास यात्रा में लगभग पन्द्रह से बीस वर्ष लगते हैं। मस्तिष्क का यह विकास मात्र न्यूरॉनों की बढ़त नहीं है . वरन उस का उपयोग करने की पद्धति सीखना भी उसमें शामिल है .और न्यूरॉन के विकास तथा सीखने के विकास परस्पर आश्रित हैं। यदि कोई कौशल अच्छे से सीखा जाए तब न्यूरॉन भी अच्छे से विकसित होंगे।

कपि की सीखने की योग्यता बहुत सीमति होती है . जब कि मनुष्य के सीखने की योग्यता असीम है। और इसलिये उसे सिखाने वाले की आवश्यकता भी होती है। मनुष्य विशेषकर शिशु गलतियां करके सीखते हैं। यदि शिशु को सिखानेवाला नहीं होगा तब वह वे गलतियां दुहराएगा जो उसके पूर्वज कर चुके हैं और इसलिये उसकी एक संतति से दूसरी संतति में प्रगति शायद ही होगी . यही कि जैसी चिम्पैन्ज़ी की संतानें आज भी अधिकांशतया वही गलतियां कर रही हैं जो उनके हजारों वर्ष पहले पूर्वज कर चुके हैं। अनुभवी व्यक्तियों से सीखने की यही प्रक्रिया है जिसकी कृपा से वह एक विवेकशील मानव . होमो सेपियन्स .बन सका है। और इसके लिये उसे बीस पच्चीस वर्ष लग जाते हैं।

यह शिक्षा अवश्य ही माता पिता तथा कुछ संस्थाएं देने का प्रयास करते हैं, किन्तु वह उन्हें मानवता प्रदान करने के लिये पर्याप्त नहीं हो पाती। एक तो . माता पिता अपने तथा परिवार के जीवन के लिये आवश्यक संसाधनों के अर्जन में व्यस्त रहते हैं। दूसरे . वे थक भी जाते हैं फिर. उनमें धीरज और ज्ञान की भी कमी होती है।और अतिरिक्त समय भी उनके पास कम ही होता है। जब कि दादा दादी नाना नानी के पास समय, अनुभव, धीरज, ज्ञान, अवकाश तथा स्नेहमय मन होता है जो सब शिशु के शिक्षण के लिये नितांत उपयोगी हैं। दादा दादी नाना नानी के होने से उन बच्चों की अतिजीविता तथा योग्यता कहीं अधिक बढ़ जाती है। दादी आदि द्वारा प्रदत्त अतिजीविता का यह लाभ केवल जन्म होने या शैशव अवस्था तक ही सीमित नहीं है। माता पिता मुख्यतया भैतिक जीवन के संसाधन इकट्ठे करने में बहुत व्यस्त रहते हैं। और यह सौभाग्य की बात है कि निर्बल शरीर वाले दादा दादी संसाधन इकट्ठे कर नहीं सकते, अन्यथा वे भी संसाधनों के ार्जन में लगे रहते जैसे कि डॉक्टर व्यापारी आदि ..और मानवता का विकास बहुत धीमा हो जाता।अतः यदि रक्षा विभाग की शब्दावली का उपयोग करें तब, सेनापति जो कि मोर्चे पर जाकर टैक्टिकल (अल्पकालीन)युद्ध नहीं लड़ता, और स्ट्रैटजिक (दीर्घकालीन)योजनाएं बनाता है . उसकी तरह, वृद्ध जीवन के टैक्टिकल (अल्पकालीन)दबावों से मुक्त हो सकते हैं, अतः स्ट्रैटजिक (दीर्घकालीन)कार्य पभावी रूप से कर सकते हैं। और दादा दादी (नाना नानी)अपने जीवन के अनुभवों के तथा वे अपने दादा दादी द्वारा प्राप्त उपयोगी ज्ञान तथा मानवीय संस्कारों के भंडार होते हैं, और वृद्धावस्था की कृपा से ही उनके पास समय तथा योग्यता होती है, जिसमें उचित ज्ञान वे सहर्ष अपने प्रौत्रों तथा पौत्रियों को दे सकते है। शिक्षा के साथ ही वे शिशुओं को प्रेममय वातावरण देते हैं जो उनके संवेदनात्मक तथा मानवीय विकास के लिये अधिक आवश्यक होता है, जो उन्हें मँहगे ‘क्रेश’ भी नहीं दे सकते। तभी वे बालक बालिकाएं प्रेम . दया . भलाई .त्याग आदि का 'अर्थ' समझकर आत्मसात कर सकते हैं। ऐसा जीवन स्वयं उन वृद्धों को भी सार्थक लगता है। प्रकृति ने परिवार को तीनों संततियों के साथ साथ प्रेम से रहने के लिये बनाया है। और वे सभी ऐसे प्रेममय वातावरण में रहते हुए, चाहे वे गरीब हों, सुखी रह सकते हैं। संस्कृति का विकास और इसलिये मानव का विकास वृद्धों द्वारा प्रदत्त ऐसी जीवनशैली से हुआ है।

दादी आदि द्वारा दी गई शिक्षा प्रत्येक संतति के साथ विकसित होती चलती है।दादा आदि के कार्य अपने परिवार तक ही सीमित नहीं हैं वरन विद्वत्ता के अनुसार वे समाज के लिये उपयोगी ज्ञान भी देते हैं रामायण .महाभारत आदि ग्रन्थ ऐसे ही महान वृद्धों की रचनाएं हैं जो हमें मानवता की शिक्षा दे रहे हैं।संस्कृति हजारों वर्षो का उपयोगी ज्ञान जीवन्त रखती है, जिसकी मदद से मानव तेजी से प्रगति कर सके हैं। हमारे यहां ऐसी कहावते हैं, एक अफ्रीकी कहावत भी है, ‘एक वृद्ध एक पुस्तकालय के समान है।’

सांस्कृतिक शिक्षा देने की सबसे पुरानी शैली कहानी ही हो सकती है।वह कहानी प्रारंभ में याथार्थिक अधिक रही होगी और धीरे धीरे उसे अधिक प्रभावी बनाने के लिये कल्पना का पुट जोड़ा गया होगा। कहानी का ध्येय रोजमर्रा के लिये आवश्यक जानकारी देना भी होगा और बच्चों को अन्य के साथ कैसा व्यवहार करना भी . और मानव बनने के लिये जीवन मूल्य देना भी। साथ ही बच्चों के मन को पकड़ने के लिये कहानी को रोचक बनाना आवश्यक रहा होगा।

वृद्ध लोग परिवार पर अपने संसाधनों के लिये निर्भर करते हैं यह स्वागत योग्य है।वृद्धावस्था मानवता के लिये प्रकृति का अनोखा वरदान है। वृद्धावस्था ने ही मानवीय संस्कृति तथा सभ्यता का विकास किया है। वृद्धावस्था प्रकृति की भूल या अभिशाप नहीं है, वरदान है। मानव जिस सभ्यता के शिखर पर पहुँचा हैं, वृद्धों की कृपा से पहुँचा है। बूढे. तथा वृद्ध में अंतर है। शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक शक्तियों का उम्र के साथ क्षीण होना बुढ़ापा है। वेद उसे वृद्ध कहते हैं जो वेदों का अध्येता है, ज्ञानी है .चाहे वह युवा ही क्यों न हो । भारतीय मनीषा के अनुसार मात्र सफेद बालों वाला .किन्तु अज्ञानी . व्यक्ति वृद्ध नहीं है, बूढ़ा है। हमारे वृद्ध अपने पौत्र पौत्रियों के भविष्य के लिये उत्सुक होते हैं। वृद्धावस्था के लिये ज्ञानी होना आवश्यक है जो उचित शिक्षा दे सकता है।

बच्चे के लिये सांस्कृतिक शिक्षा उतनी ही महत्वपूर्ण है .यदि अधिक नही . जितनी कि उनके शरीर की देखभाल करना।सांस्कृतिक शिक्षा में प्रेम, सत्य, अहिंसा, सहनशीलता, उदारता, विवेक, सहयोग, बौद्धिक विकास, परिश्रम, भावनाओं पर नियंत्रण, धैर्य, सेवा, क्षमा, अस्तेय, साहस, जोखिम, कल्पना शक्ति, खोज, नवाचार, सृजनशीलता आदि गुणों के विकास का प्रयास होता है जो उपयुक्त बालकथाओं द्वारा सरलतापूर्वक किया जा सकता है।बालकथाओं के संग्रहों के उदाहरण हैं पंचतंत्र .हितोपदेश, रामायण, महाभारत, संहासन बत्तीसी, विक्रम बेताल, आदि आदि।किन्तु आज नानी की कहानी का स्थान टीवी ने ले लिया है। यूके तक में टीवी कहर ढा रहा है। बी बी सी खबर देता है कि यू के में आज किशोर तथा युवा मानवीय गुणों में कमजोर हैं इतने कि वे समाज के लिये गंभीर समस्या बन गए हैं।मोटापा , शराबखोरी और हिंसा, कुमारी माताओ की समस्या से पुलिस, माता पिता, शिक्षक आदि हताशा का अनुभव कर रहे हैं। मानवीयसंस्कारों के बिना किशोर या युवा समाज के लिये बंदरों के समाज की अपेक्षा अधिक खतरनाक है।

टाफ़्लर जैसे कुछ चिन्तकों ने पारम्परिक परिवार के टूटने को आधुनिक जीवन के लिये आवश्यक माना है। वे कहते हैं कि प्रौद्योगिक युग में नौकरियां दूर दूर मिलती हैं। आज अच्छे अस्पताल उपलब्ध हैं अतः दादी की मदद आवश्यक नहीं है। 'सोशल सैक्योरिटी' वृद्धों को संसाधन देती है।क्रैश तथा नर्सरी स्कूल भी दादी का काम अच्छे से करते हैं।आज व्यक्ति अपनी स्वतंत्रता को अधिक महत्व देता है जो संयुक्त परिवार में संभव नहीं है।जिस गति से जानकारी बढ़ रही है . वृद्ध यहां तक कि माता पिता भी तारीख बाहर हो जाते हैं।अतः युवा को 16 वर्ष की आयु के बाद अपने हमउम्र साथियों के साथ रहना अधिक लाभदायक है। यह स्वतंत्र जीवन युवा को कुछ उपयोगी शिक्षा दे या न दे . किन्तु इसने निश्चित ही संयुक्त परिवार को तोड़कर नाभिक बना दिया है।यह दृष्टिकोण कि वृद्ध तारीख बाहर हैं, भोगवादी दृष्टिकोण है।वृद्ध नौकरी देने वाले ज्ञान में तारीख बाहर हो सकते हैं . किन्तु सांस्कृतिक ज्ञान देने में कतई नहीं।वे समाजशास्त्री भी जो पश्चिम की पदार्थवादी या साम्यवादी सोच से प्रभावित हैं, उनके जैसा ही सोचते हैं, उन्हें संयुक्त परिवार के लाभ दिखाई ही नहीं देते और न वहां की बुराइयां, जब कि वहां के समाज में युवा की दशा चिंतनीय है।सौभाग्य से वहां के कुछ चिन्तक अब वहां की कमजोरियों को समझने लगे हैं। यथा प्रसिद्ध जनसांख्यिकी विद्वान बैन वाटैनबर्ग ने बहुत ही सूत्र रूप में कहा है . “क्या आप बुढ़ापे में सुरक्षा चाहते हैं . तब आप डॉलर्स अपनी सुरक्षा निधि में नहीं वरन बच्चों में लगाइये।” इस नाभिकीय परिवार की संस्कृति में वृद्धजन व्यर्थ हो रहे हैं . और परिवार दुखी हो रहे हैं।जब् कि सभी जीव सुखी होना चाहते हैं।

हम सुख खोज तो रहे हैं किन्तु जानते नहीं हैं कि वह कैसे मिलता है।यह अमेरिकी नोबेल पुरस्कृत डैनी कानमैन, रिचर्ड ईस्टरलिंग आदि अनेक मनोवैज्ञानिकों का भी कहना है।वृद्धों के ज्ञान का एक रोचक उदाहरण उपयोगी भी है।प्रारंभिक अमेरिकी प्रवासी जब यूएसए गए तब उनहेने जिस क्रूरता से आदिवासियों का विनाश किया वह इतिहास का महत्वपूर्ण हिस्सा है। वे उनकी जमीनें लूट रहे थे और दिखावे के लिये उसे खरीदना कहते थे। सिएटल के दुवामिश तथा सुक्वामिश मूलजातियों के नेता 'चीफ सिएटल क्ष्क्ष्िि ' ने ऐसे ही एक प्रस्ताव के उत्तर में राष्ट्रपति फ्रैंकलिन पियर्स को 1855 में एक पत्र लिखा था :

वाशिंगटन के ग्रेट चीफ ने संदेश भेजा है कि वे हमारी जमीन खरीदना चाहते हैं। . . . किन्तु हम आपके प्रस्ताव पर विचार करेंगे . क्योंकि हम जानते हैं कि हमारे न कहने पर गोरे लोग बन्दूक लेकर हम पर बरस पड़ेंगे और हमारी जमीन छीन लेंगे।. . . .आप आकाश या जमीन की उष्णता कैसे खरीद या बेच सकते हैं।यह विचार ही हमें अजीब लगता है। क्योंकि हम तो हवा की सुगंध या कलकल करते जल के स्वामी ही नहीं हैं।. . . .प्रथ्वी का प्रत्येक कण हमारे लिये पवित्र है।. . . .जब सारे जंगल के भैंसों की हत्या कर दी जाएगी .वन अश्वों को पालतू बना दिया जाएगा . और जब वन के गुप्त कोनों में भी आदमी की गंध भर जाएगी . और जब पुरातन गिरि के दृश्य पर 'बात करने वाले तार' छा जाएंगे . तब निकुंज कहां बचेगा . सुपर्ण कहां होगा . समाप्त हो गया होगा।” इसे उद्धृत करने का उद्देश्य यह देखना है कि तथाकथित अपढ़, असभ्य तथा क्रूर आदिवासी वृद्ध की जीवनमूल्यों की सोच कितनी मानवीय तथा प्रकृतिप्रेमी तथा शाश्वत हो सकती है, और उसके बरअक्स तथाकथित सुशिक्षित .सभ्य तथा भोगवादी के जीवनमूल्यों की सोच कितनी अमानवीय .प्रकृतिद्रोही तथा त्याज्य हो सकती है कि दुख बढ़ रहे हैं और प्रथ्वी का विनाश ही सिर पर नाच रहा है।

तैत्तरीय उपनिषद(2 .7 .1 .)में ऋषि कहते हैं, “यद्वै तत्सुकृतं, रसो वै सः।” 'जो उसने रचा है वह आनन्द ही है।' वृद्धावस्था भी आन्दमय है! वरदान है अभिशाप नहीं।जीवन में कष्ट तो होंगे .किन्तु दुखी होना आवश्यक नहीं।जीन्स आयु का क्षरण करते हैं . शरीर दुर्बल करते हैं . किन्तु संस्कृति सुख पैदा करती है। यदि जीवन में सार्थकता है तो कष्टों .कठिनाइयों से जूझने में . उनके पार जाने में सुख है। न केवल हमारी अतिजीविता वरन सभ्यता, संस्कृति तथा सुख की समझ इसी वृद्धावस्था की परिपक्व सोच की देन हैं।संस्कृति आनुवंशिकता की संपूरक है। वृद्धजन स्नेहमय वातावरण में बालकों में संस्कार डालते हैं।नैतिक सूक्तों को अंकुरित करने के लिये मस्तिष्क नहीं .वरन हृदय प्रभावी भूमि है।जब मां या नानी बच्चे से कहती हैं कि सच बोलो तब बच्चा उसे सहज ही मान लेता है . किन्तु शिक्षक के बोलने पर वह सोचने लगता है। हमारे संयुक्त परिवार में वृद्ध निरर्थक नहीं समझे जाते, वरन सम्मानीय होते हैं। ‘सेवा सुश्रूषा’ का अर्थ होता है, कहानी आदि सुनने के साथ प्रसन्न होकर सेवा करना। कहानियों से बच्चे प्रसन्न होकर दादा दादी से प्रेम करते हैं, उनकी सेवा करते हैं। दोनों वरन तीनों संततियों को लाभ होता है . समाज को लाभ होता है। रामायण, महाभारत, पंचत्रंत, हितोपदेश, सिंहासन बत्तीसी, विक्रम बेताल जैसी कहानियों से बच्चों में मानवीय संस्कार पड़ते हैं, उनकी बुद्धि का विकास होता है। अतः आज तो यह और भी अधिक जरूरी हो गया है कि वृद्ध कम से कम अपने पौत्रादि को कहानियों आदि के माध्यम से मानवता के संस्कार दें।रुपए कमाने में अक्षम होने के कारण अब वृद्धजन उस संपत्ति का अर्जन कर सकते हैं जिसे रुपए नहीं खरीद सकते। इससे वृद्धों के जीवन में भी सार्थकता आएगी, उनका आत्मविश्वास बढे.गा और उनका समाज में सम्मान भी। वे यह संस्कार डालने का कार्य अपने पौत्रादि तक ही सीमित न रखकर यदि समाज के अन्य विशेषकर निर्धन बालकों के साथ भी कर सकें तब एक तो उनके जीवन में सार्थकता और बढ़ेगी तथा दूसरे, वे समाज का ऋण भी चुकाएंगे।

भोगवादी पश्चिम में परिवार नाभिक हैं, जो उन्हें अमानवीय बना रहे हैं। दार्शनिक कान्ट की नीति शास्त्र का आधार है “कैटैगॉरिकल इंपरेटिव’- 'एक मानव दूसरे का वस्तु की तरह उपयोग नहीं करेगा'। इसके विरुद्ध भोगवाद में ‘प्रत्येक मानव भोगवदियों के लिये भोग की वस्तु हो रहा है’।यही 'विश्वग्राम' 'ग्लोबल विलेज' का आधार है।और 'वसुधैव कुटुम्बकम' का आधार प्रेम है। 'विश्वग्राम' के वृद्ध मातापिता अनुत्पादक तथा निरर्थक माने जाते हैं, अतः महत्वहीन हो जाते हैं . किन्तु संयुक्त परिवार में सार्थक तथा सम्माननीय होते हैं। फुको द्वारा प्रतिपादित अवधारणा कि सत्ता, केवल शासन या धन के पास नहीं, सत्ता सव जगह है, परिवार में भी है जो बूढो के पास रहती है और उसे तारीखबाहर बूढों के पास नहीं रहना चाहिये।’ भारतीय संस्कृति में सत्ता वृद्धों के पास रहती है क्योंकि संतान का मातापिता दादा आदि से अधिक भला चाहने वाला दूसरा नहीं होता । भारतीय वृद्ध की सत्ता का आधार प्रेम होता है .जिसका सदुपयोग करना वृद्ध जानता है, और त्याग करना भी। वृद्धों से सत्ता के छीनने का दुष्परिणाम है कि अब बच्चों पर पूंजीवादी तथा टीवी का कब्जा हो गया है। उनका भोगवादी समाज बच्चों किशोरों का शोषण करने के लिये परिवार में फूट डालता है, और दुख की बात कि हम उनके जाल में मस्त होकर फँस रहे हैं। भोगवादी चाहे जितना कुप्रचार करें, भारतीय सुसंस्कृत वृद्ध बालकों के लिये, मानवता के लिये कभी ‘तारीखबाहर’ नहीं होता, उसकी योग्यता कम अधिक हो सकती है।

हम पश्चिम की नकल कर भोगवादी हो रहे हैं। हमारे परिवार भी टूटकर नाभिक हो रहे हैं। वृद्धों को अनुपयोगी भार समझा जा रहा है। पढे. लिखे लोग भी नितान्त स्वार्थी होकर राक्षसत्व की ओर बढ़ रहे हैं। निठारी केवल नौएडा में नहीं वरन भारत के हर शहर में छिपे हैं, और हम इतने स्वकेंद्रित हो गए हैं कि हमें पता तक नहीं! वृद्धों का घर में, समाज में सम्मान नहंीं है। वृद्धों को बेटे बहू घर से बाहर निकाल रहे हैं । वृद्धों की हत्या कर उन्हें लूटा जा रहा हैं। आज भारत में भी वृद्धाश्रम खोले जा रहे हैं जो भारतीय संस्कृति के लिये कलंक हैं। हां, निस्सहाय वृद्धों के लिये वृद्धाश्रम खोले जा सकते हैं। शिक्षा में पश्चिम के और आज के भारतीय बालकों को रोटी कमाने का कोैशल तो मिलता है, किन्तु पर्याप्त नैतिक शिक्षा नहंी मिलती, जिसके फलस्वरूप राक्षसत्व बढ़ रहा है।हम भूल जाते हैं कि यदि समाज में मानवता कम हो तो अपराधों के कारण हमारा जीवन नरक के समान हो जाएगा, और तब पुलिस भी तो अमानवीय होगी! अतः समाज को और बालकों को मानवीय संस्कार देना अत्यंत महत्वपूर्ण है।

यह स्पष्ट है कि हम भोगवाद अर्थात अमानवीयता की दिशा में तेजी से जा रहे हैं, और हम पश्चिम से भी अधिक दुखी होंगे। मानवीयता को लाना अर्थात भारतीय संस्कृति को वापिस लाना हमारे लिये सबसे पहली चुनौती हैं। यह वैश्विक ग्रामवाला बाजारवाद भोगवाद का ही उपकरण हैं। अनेक विद्वान कहते हैं कि यह बाजारवाद तो जा नहीं सकता। हमारे जीवन का दृष्टिकोण जब ‘त्यागमय भोग’ होगा तब बाजारवाद नहीं केवल बाजार बच सकेगा। हमें बाजार चाहिये बाजारवाद नहीं, क्योंकि बाजारवाद में बाजार हमारे जीवन पर नियंत्रण करता है। हम बाजार से वह ही खरीदें जिसकी हमें आवश्यकता हैं, वह नहीं जो हमें बाजार लुभाकर बेचना चाहता है। और त्यागमयभोग हमें अपनी आवश्यकताओं को समझने का विवेक दे सकता है। हमारी संस्कृति भोगवाद को निकाल बाहर करेगी।किन्तु विदेशी भाषा के माध्यम से शिक्षा विदेशी संस्कृति ही लाएगी। यदि हम अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा प्राप्त करते रहे तब हमारी गुलामी की भावना और बढ़ती जाएगी, तथा पाश्चात्य संस्कृति हम पर हावी होगी और हम निश्चित ही भोगवाद तथा अलगाववाद की तरफ ही बढे.ंगे।अंग्रेजी सीखें .किन्तु हम भारतीय भाषाओं के माध्यम से ही शिक्षा प्राप्त करेें।

हमारी संस्कृति ‘तारीख बाहर’ नहीं हैं, उसमें आधुनिक बने रहने की पूरी क्षमताएं हैं। हमारी संस्कृति हमें तथा विश्व को भोगवाद के राक्षस से बचाएगी, क्योंकि यह ‘तेन त्यक्तेन भुंजीथाक्ष्क्ष्व्ः’ त्यागमयभोग वाली संस्कृति है।त्यागमय भोग का अर्थ है भोग की गुलामी का त्याग .न कि भोग का त्याग। इच्छाओं पर विवेक का अंकुश ही हमें प्रौद्योगिकी के दासत्व से मुक्ति दिलवाकर, उसका स्वामी बनाएगी। हमारी संस्कृति विज्ञान की मित्र है, अतः हमारी विज्ञान में सम्यक प्रगति हो सकेगी।हम अंग्रेजी सीखें उतनी कि जो नौकरी के लिये आवश्यक हैं, ओैर अपनी संस्कृति लाने के लिये हम अंग्रेजी की गुलामी छोड़कर भारतीय भाषाओं को सम्मान दें।

भारतीय संस्कृति में संयुक्त परिवार की परम्परा है, वृद्धों का सम्मान है। मनु स्मृति में लिखा है,

अभिवादन शीलस्य नित्य वृद्ध उपसेविनः। चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशोबलम्।”

वृद्धावस्था में कष्ट तो होंगे, दुख होना जरूरी नहीं है। हमें तो वृद्धावस्था के वरदान पक्ष को लाना चाहिये। यह हम तभी कर सकते हैं कि जब हम भोगवादी न हों और प्रौद्योगिकी के स्वामी हों न कि गुलाम जैसे कि अभी हैं। हम वृद्ध होने से डरते नहीं हैं, हम तो उसकी कामना करते हैं। यजुर्वेद में कहा है : “अदीनाः श्याम शरदः शतम्। भूयश्च शरदः शतात्।” ‘सौ वर्षों तक हम दीन न हों, सौ वर्षों तक जीवन जियें।’ हमारे यहां सौ वर्षों तक जीने का आशीर्वाद दिया जाता है। हम मानते हैं, “मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, आचार्य देवो भव . . . . .” वृद्धजन जीवन में एक सार्थक उद्देश्य चाहते हैं . अपना सम्मान चाहते हैं जो संयुक्त परिवार में सम्भव है। वह समाज की भी सेवा करेगा। वृद्धावस्था के कष्टों को सहर्ष झेलेगा। महाभारत में सभा की परिभाषा दी है, ‘ सभा वह है जहां सम्यक ज्ञान है। “ न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धाः। वृद्धाः न ते ये न वदन्ति धर्मम्।” जो ज्ञान की चर्चा नहीं करते वे वृद्ध नहीं। वह सभा नहीं जहां वृद्ध नहीं, वह चाहे लोक सभा हो या विधान सभा या यह सभा। भारत देश में जब वृद्धों का, भारतीय संस्कृति का तथा विज्ञान का उचित सम्मान होगा, तभी 21 वीं सदी में भारत विश्व में अपना माथा ऊँचा कर सकेगा, तथा विश्व का नेतृत्व भी।

Friday, January 14, 2011

देश का युवा शिक्षित हो कर भी देश समाज के विषय में भ्रमित क्यों?

देश का युवा शिक्षित हो कर भी देश समाज के विषय में भ्रमित क्यों?
केवल युवा ही नहीं पूरे समाज में भ्रम का वातावरण बनाने में लगा, बिकाऊ मीडिया किस सीमा तक गिर चुका है; इसका एक अंश नीरा राडिया कांड ने दिखा दिया! मेरी जिस बात को 10 वर्ष पूर्व समझने में लोगों को कठिनाई आती थी, अब अधिकांश लोग जान ही नहीं मान भी रहे हैं! उसी नकारात्मक मीडिया का सार्थक विकल्प 10 वर्ष से ही "राष्ट्रीय साप्ताहिक युगदर्पण हिंदी"! 
विडम्बना यह है कि जो युवा समाज की शक्ति का स्त्रोत होना था; मैकालेवादी शिक्षा ने उसे अन्य विषयों में पारंगत बनाते हुए भी भारतीयता की शिक्षा से विमुख रखा! जिससे एक ओर वो पश्चिमानुरागी बने, स्वयं को शिक्षित मान भारतीयता से ही विमुख हो जाये! किन्तु जहाँ वे कुछ सफल भी हुए, तहाँ प्रबल पारिवारिक संस्कार ने स्थिति का संभाला भी है! पश्चिमी कुचक्र केवल समाज जीवन के एक दो क्षेत्रों तक सीमित नहीं थे, किन्तु उनकी रोक, जो कभी हुई भी तो सीमित आयामों के कारण, उतनी व्यापक व प्रभावी न हो सकी! मीडिया के ही माध्यम उन विभिन्न आयामों को जानने का प्रयास है विविध विषयों के 25 ब्लाग:-

युग दर्पण हिंदी राष्ट्रीय समाचारपत्र

(भारत सरकार के सूचना प्रसारण के समाचार पत्र पंजीयक द्वारा पंजी RNI DelHin 11786/2001) 9वर्ष पूर्व स्वस्थ समाचारों के प्रतिनिधि बना युगदर्पण अब उनके प्रतीक के रूपमें पहचाना जाता है. विविधतापूर्ण किन्तु सप्तगुणयुक्त- सार्थक,सटीक,स्वस्थ,सोम्य, सुघड़,सुस्पष्ट,व सुरुचिपूर्ण पत्रकारिता का एक ही नाम युगदर्पण. पत्रकारिता व्यवसाय नहीं एक मिशन है-युगदर्पण(हरयाणा/पंजाब में सूचीबद्ध).निस्संकोच ब्लॉग पर टिप्पणी/अनुसरण/निशुल्क सदस्यता व yugdarpanh पर इमेल/चैट करें,संपर्कसूत्र-तिलक संपादक युगदर्पण 9911111611,



देश की मिटटी से जुडे लोगों का मंच.-- नई तकनीक स्वीकारने के साथ ही विश्व को भारत की वो सौगात /उन महान मूल्यों की रक्षा, हर हाल करना, व्यापक मानवीय आधार है. द्वार खुले रखने का अर्थ अँधानुकरण/प्रदुषण स्वीकारने की बाध्यता नहीं.(निस्संकोच ब्लॉग पर टिप्पणी/अनुसरण/निशुल्क सदस्यता व yugdarpanh पर इमेल/चैट करें,संपर्क सूत्र -तिलक संपादक युगदर्पण 09911111611,09911145678, 09540007993 

देश की मिटटी--

देश केवल भूमि का एक टुकड़ा,एक आरामगाह,एक बाज़ार,समझते हैं जो लोग,कितना ही लुटा दो उन पर संतुष्ट नहीं होते.वो जानते हैं शोर मचाकर और लूट सकते हैं,कर्तव्य नहीं है कुछ उनका,अधिकारों का मचाते शोर हैं.कर्तव्य हिन्दू के अधिकार दूसरों के-यह आज़ादी कैसी व किस की? इसमें वोटबैंक राजनीति,देश की सुरक्षा से खिलवाड़,किसी के हित में नहीं,स्वार्थवश राष्ट्रद्रोह है-तिलक.(निस्संकोच ब्लॉग पर टिप्पणी/अनुसरण/निशुल्क सदस्यता व yugdarpanh पर इमेल/चैट करें,संपर्कसूत्र-तिलक संपादक युगदर्पण 09911111611,9911145678,9540007993
"कार्य ही पूजा है/कर्मण्येव अधिकारस्य मा फलेषु कदाचना" दृष्टान्त का पालन होता नहीं,या होने नहीं दिया जाता, जो करते हैं उन्हें प्रोत्साहन की जगह तिरस्कार का दंड भुगतना पड़ता है. आजीविका के लिए कुछ लोग व्यवसाय,उद्योग,कृषि से जुडे, कुछ सेवारत हैं रेल,रक्षा. सभी का दर्द उपलब्धि, तथा परिस्थितियों सहित कार्यक्षेत्र का दर्पण. तिलक..(निस्संकोच ब्लॉग पर टिप्पणी/अनुसरण/निशुल्क सदस्यता व yugdarpanh पर इमेल/चैट करें, संपर्कसूत्र-तिलक संपादक युगदर्पण 09911111611,09911145678,0954000799
पर्यावरण दर्पण:-
आधुनिकता के प्रदूषण से संरक्षण 
-आधुनिक विकास के नाम पश्चिमी मशीनीकरन स्वचालित अँधानुकरण से सृजन नहीं गैस उत्सर्जन होता है.यही नहीं आडम्बर में प्रयुक्त लकड़ी हेतु वृक्ष काट कर प्रकृति का विसर्जन होता है.सृष्टी में जीवन को चाहिए शुद्ध जल और शुद्ध वायु. जलवायु/पर्यावरण के संरक्षण हेतु जुटें. तिलक..(निस्संकोच ब्लॉग पर टिप्पणी/अनुसरण/निशुल्क सदस्यता व yugdarpanh पर इमेल/चैट करें,संपर्कसूत्र तिलक संपादक युगदर्पण 09911111611,09911145678,09540007993
पर्यटन केवल उद्योग ही नहीं है,यह इतिहास को भी जीवित रखता है,धरोहर से परिचित करता है.भारत जब तक इतिहास को जीता था भारत था,'इंडिया' बन,इतिहास भूलने व बिगाड़ने की पतन की राह चलने लगा है. परिणाम यूनान मिस्त्र रोम से भी घातक होगा. कुछ लोग इतिहास पड़ते,पढ़ाते हैं कुछ बिगाडते हैं.हम वो(भारत माता के लाल)हैं जो अनुकरणीय इतिहास घडते/ रचते है.तिलक.(निस्संकोच ब्लॉग पर टिप्पणी/अनुसरण/निशुल्क सदस्यता व yugdarpanh पर इमेल/चैट करें,संपर्कसूत्र-तिलक संपादक युगदर्पण 09911111611, 09911145678,09540007993
यह राष्ट्र जो कभी विश्वगुरु था,आजभी इसमें वह गुण,योग्यता व क्षमता विद्यमान है.किन्तु प्रकृति के संसाधनों व उत्कृष्ट मानवीयशक्ति से युक्त इस राष्ट्रको काल का ग्रहण लग चुका है.जिस दिन यह ग्रहणमुक्त हो जायेगा,पुनः विश्वगुरु होगा. राष्ट्रोत्थानका यह मन्त्र पूर्ण हो,आइये,युगकी इस चुनोतीको भारतमाँ की संतान के नाते स्वीकारकर हम सभी इसमें अपना योगदान दें.निस्संकोच ब्लॉग पर टिप्पणी/अनुसरण/निशुल्क सदस्यता वyugdarpanh पर इमेल/चैट करें,संपर्कसूत्र- तिलक.संपादक युगदर्पण 09911111611,09911145678,09540007993. 

    समाज के उच्च आदर्श,मान्यताएं,नैतिक मूल्य और परम्पराएँ कहीं लुप्त होती जा रही हैं. विश्व गुरु रहा वो भारत इंडिया के पीछे कहीं खो गया है. ढून्ढ कर लाने वाले को पुरुस्कार कुबेर का राज्य.तिलक.(निस्संकोच ब्लॉग पर टिप्पणी/ अनुसरण/निशुल्क सदस्यता व yugdarpanh पर इमेल/चैट करें,संपर्कसूत्र-तिलक संपादक युगदर्पण 09911111611,9911145678,9540007993.

    सत्यदर्पण:-

    कलयुग का झूठ सफ़ेद, सत्य काला क्यों हो गया है ?
     -गोरे अंग्रेज़ गए काले अंग्रेज़ रह गए.जो उनके राज में न हो सका पूरा,मैकाले के उस अधूरे को 60 वर्ष में पूरा करेंगे उसके साले.विश्व की सर्वश्रेष्ठ उस संस्कृति को नष्ट किया जा रहा है.देश को लूटा जा रहा है.दिन के प्रकाश में सबके सामने सफेद झूठ;और अंधकार में लुप्त सच्च.भारतीय संस्कृति की सीता का हरण करने देखो साधू वेश में फिर आया रावण.-तिलक 
    तक्षशिला और नालंदा विश्व विद्यालयों को अग्नि की भेंट कर वो कहते हैं तुम अज्ञानी हो,पश्चिम की शिक्षा को ही कल्याण का मार्ग समझाया जाता है.सत्य हम जानते हैं,हमें यह नहीं,विश्व गुरु की शिक्षा चाहिए.
    पश्चिमके कदम सदा लूट केलिए उठे,हमारे पग सदा विश्वकल्याण हेतु आगे बड़े.जिस देश में गए,शोषण नहीं किया अर्थ व्यवस्था को उठाया.ऐसे समाज के प्रति मिडिया दुष्प्रचारसे ऑस्ट्रेलिया जैसी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति,अन्यत्र हिन्दू समाज व हिदुत्व और भारत को प्रभावित करने वाली जानकारी का दर्पण है विश्वदर्पण. तिलक.(निस्संकोच ब्लॉग पर टिप्पणी/अनुसरण/निशुल्क सदस्यता व yugdarpanh पर इमेल/चैट करें,संपर्कसूत्र- तिलक संपादक युगदर्पण 09911111611,9911145678,9540007993. 




    कभी रेल सा दौड़ता है यह जीवन. कहीं ठेलना पड़ता. रंग कुछ भी हो हंसते या रोते हुए जैसे भी जियो, फिर भी यह जीवन है. सप्तरंगी जीवन के विविध रंग, उतार चढाव, नीतिओं विसंगतियों के साथ दार्शनिकता व यथार्थ जीवन संघर्ष के आनंद का मेला है- तिलक..(निस्संकोच ब्लॉग पर टिप्पणी/अनुसरण/निशुल्क सदस्यता व yugdarpanh पर इमेल/चैट करें, संपर्कसूत्र-तिलक संपादक युगदर्पण 09911111611,09911145678,09540007993. 

    ब्लाग विवरण/संपर्कसूत्र-

    जीवन में हास्य ठिठोली आवश्यक भले ही हो,किन्तु जीवन ही कहीं ठिठोली न बन जाये यह भी देखना होगा.सबको साथ ले हंसें किसी पर नहीं! मनोरंजन और छिछोरापन में अंतर है.स्वतंत्रता और स्वच्छंदता में अंतर है.अधिकार से पहले कर्तव्यों को भी समझें. तिलक.(निस्संकोच ब्लॉग पर टिप्पणी/ अनुसरण/ निशुल्क सदस्यता व yugdarpanh पर इमेल/ चैट करें, संपर्कसूत्र- तिलक संपादक युगदर्पण 09911111611, 09911145678,09540007993 

    काव्यांजलिका:-

    कवियों, लेखकों का शुभ्रमंच:-विश्व को नौ रस समझा कर, प्रत्येक में मूर्धन्य महाकवियों से समृद्ध भारत में दिनकर के बाद, भांड और भाट, पूछे और पूजे जाने लगे, तब और दिनकर कहाँ से पैदा होंगे? समुन्द्र से गहरा, वासनामुक्त हो-साहित्य.तिलक.(निस्संकोच ब्लॉग पर टिप्पणी/अनुसरण/निशुल्क सदस्यता व yugdarpanh पर इमेल/चैट करें,संपर्कसूत्र-तिलक संपादक युगदर्पण 09911111611,09911145678,09540007993.

    प्रबुद्ध एवं राष्ट्रवादी कलमरथियो,

    काव्यांजलिका में हिन्दी की समस्त विधाओं में रचित अप्रकाशित,मौलिक तथा स्तरीय रचनाओं का स्वागत है। रचनाकार अपनी रचनाएं हिन्दी के किसी भी फोंट में माईक्रोसोफट वर्ड अथवा पेजमेकर में टाईप कर, स्वरचित है इसका सत्यापन कर yugdarpan@gmail.com पर भेज सकते है,प्राथमिकता दी जाएगी। । यदि किसी अप्रत्याशित कारणवश रचनाएं एक सप्ताह तक प्रकाशित ना हो पाए अथवा किसी भी प्रकार की सूचना प्राप्त ना हो पाए तो कृपया पुनः स्मरण दिलवाने का कष्ट करें। ये आपका ही साझा मंच है.धन्यवाद 
    रचनाकार का
    कृति,आकृति,अनुकृति,रचनाधर्मी का मंच
    आरंभ से ही रचनाकारिता मानव सभ्यता के विकास का मंत्र रही है.आज विध्वंस के आतंक के बीच फिर से रचनाकार को ढूँढता और उन्हें प्रोत्साहन हेतु है यह मंच.कृति,विकृति,आकृति,अनुकृति,मंचन,गायन,संगीत,चित्रकला,इन सब में "कला वही जो मन को छू ले,विकृत हो तो विकार तुम्हारा!".(निस्संकोच ब्लॉग पर टिप्पणी/ अनुसरण/निशुल्क सदस्यता व yugdarpanh पर इमेल/चैट करें 

    CHETNA KE DO AYAM

    Rashtra ke gaurav aur vyaktiyon ki urja nashta hone se bachana . Ek or aitihasik tathyon ko todmarod kar bhramit karne va logon ko durvyasanon /vyadhion ka shikar banane ke kuchakra samjhen /unse mukti payen."NASHAA"--Desh ki Urjaa v Samarth ko nashta karneke kuchakra kaa hi Naam hai.Bhaarat ko Arth v Bal se khokhlaa karneke Kuchakra mein lage tatva ise phailaa rahe hain.FFC v Nashekaa ApraadhJagat se gehraa sambandh hai.Kuchakra Kusanga Vikruti Bigaarhaa, 
    Yahee Raashtrake Shatru Hamaaraa. Nasheki latase Gharko Ujaarhaa,Ab bhee chetyen,Phailey Ujiyaaraa.Feelfree to Comment on/follow/subsc.blogs, Email/Chat-yugdarpanh on Yahoo/Ggl, contact Tilak Editor YugDarpan 09911111611, 09911145678,09540007993 

    फिल्म फैशन क्लब फंडा :--(चमकता काला सच)

    मृगतृष्णा रेगिस्तान में भटका देती है,यह जानते हैं सब लोग;फिर भी चमक से खिच जाते कुछ लोग,क्या है फिल्म,फैशन,क्लब का सच? उद्योग के रूप में मान्यता लेकर सरकार से सुविधा व पोषण भी पाते हुए अपराध,अनैतिकता व असामाजिकता के प्रशिक्षण केंद्र बन चुके इसके वर्तमान स्वरूप के कारण समाज के मूल्य,आदर्श,परम्पराएँ,अंतिम साँस लेरहे हैं.अपराध का हाथ,'फिफैक्लब' केसाथ.(निस्संकोच ब्लॉगपर टिप्पणी/अनुसरण/निशुल्क सदस्यता व yugdarpanh पर इमेल/चैट करें,संपर्कसूत्र-तिलक संपादक युगदर्पण 09911111611,09911145678,09540007993.

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    Vasudhaiva kutumbakama, Vishva parivaar ki sabhi SUchnAyen Sahee Roop mein Sabhi ko DENA hai(FREE FOR ALL. Any body canAssess to Read, Write, From anywhere, human dignity is the limit). Naitik SImA Mein KchhBhi. dhyAna rahey, Abhivyakti kA Artha Atikraman Nahin hotA. Tilak Editor YUG DARPAN

    तेरा वैभव अमर रहे मां हम दिन चार रहें न रहें

    कभी विश्व गुरु रहे भारत की धर्म संस्कृति की पताका, विश्व के कल्याण हेतू पुनः नभ में फहराये. सार्थक और सटीक जानकारी का दर्पण. तिलक.(निस्संकोच ब्लॉग पर टिप्पणी/अनुसरण/निशुल्क सदस्यता व yugdarpanh पर इमेल/चैट करें,संपर्कसूत्र-तिलक संपादक युगदर्पण 09911111611,09911145678,09540007993. 

      सुखसुविधा की खोजमें आज की भागदौड़ ने हमारे जीवनसे स्वस्थ व शांति को छीन हमें विचलित कर दिया है.तन,मन व वातावरण सहित पूरा परिवेश पश्चिमकी भेंट चढ़ गया है.उसे सही मार्ग पर लाने हेतु खानपान,रहनसहन,रीतिरिवाज़ सहित संस्कारित करने हेतु तत्त्वज्ञान,वास्तु,योग,आयुर्वेद का अनुसरण कर हम अपने जीवनको उचित शैली में ढाल सकते हैं.यदि आप इस विषयमें विशेष योग्यता रखते है,लिखें,निस्संकोच ब्लॉग पर टिप्पणी/अनुसरण/निशुल्क सदस्यता व yugdarpanh पर इमेल/चैट करें,संपर्कसूत्र-तिलक संपादक युगदर्पण 09911111611,9911145678. 
      कभी ज्ञान विज्ञान से विश्व गुरु बना भारत आज विश्व पिच्छलग्गू बन चुका है, हनुमान की भांति जब निज विस्मृति(lostMemory) से बाहर आयेगा, वैदिक ज्ञान की आभा(glory) पहचानेगा,चमकाएगा; तब तक केवल नारे से भ्रमायेगा. स्वर्ण युग की उस शक्ति को पहचान देगा ज्ञानविज्ञान दर्पण. तिलक.(Join us to Build StrongBHARAT निस्संकोच ब्लॉग पर टिप्पणी/अनुसरण/ निशुल्क सदस्यता व yugdarpanh पर इमेल/चैट करें,संपर्कसूत्र-तिलक संपादक युगदर्पण 09911111611,09911145678, 09540007993. 
      घर 4 दीवारी से नहीं 4 जनों से बनता है,परिवार उनके प्रेम और तालमेल से बनता है. सभी कार्यों को जोड़ कर साधना,सफल गृहणी का काम है. नौकरीवाली से पैसा बनेगा/घर नहीं. प्रभाव और दुर्भाव में,आधुनिक/पारिवारिक तालमेल से उत्तम घर परिवार से देश आगे बड़े. रसोई,बच्चों-परिवार की देख भाल,गृह सज्जा के बीच अपने लिए भी ध्यान देती शिक्षित नारी-(निस्संकोच ब्लॉग पर टिप्पणी/अनुसरण/ निशुल्क सदस्यता व yugdarpanh पर इमेल/चैटकरें, संपर्कसूत्र- तिलक संपादक युगदर्पण 09911111611,9911145678,09540007993. 
      घड़ा कैसा बने?-इसकी एक प्रक्रिया है.कुम्हार मिटटी घोलता,घोटता,घढता व सुखा कर पकाता है! शिशु,युवा,बाल,किशोर व तरुण को संस्कार की प्रक्रिया युवा होते होते पक जाती है!राष्ट्र के आधारस्तम्भ, सधेहाथों, उचितसांचे में ढलने से युवा समाज व राष्ट्र का संबल बनेगा: यही हमारा ध्येय है!"अंधेरों के जंगल में,दिया मैंने जलाया है!इक दिया,तुम भी जलादो;अँधेरे मिट ही जायेंगे!!"(निस्संकोच ब्लॉग पर टिप्पणी/अनुसरण/निशुल्क सदस्यता व yugdarpanh पर इमेल/चैट करें,संपर्कसूत्र-तिलक संपादक युगदर्पण 09911111611,09540007993. 

        ब्लाग विवरण, संपर्कसूत्र-

        प्रतिभा और प्रबंधन में विश्व का श्रेष्ठतम होते हुए भी राजनिति के दुष्प्रभाव से उसे बदरंग बनाती परिस्थितियों में उचित मार्ग अपना कर श्रेष्ठता प्रमाणित की जा सकती है. देश की श्रेष्ठ प्रतिभा,प्रबंधन पर राजनिति के ग्रहण की परिणति क्या होगी यही दर्शाने का प्रयास है.(निस्संकोच ब्लॉग पर टिप्पणी/अनुसरण/ निशुल्क सदस्यता व yugdarpanh पर इमेल/चैट करें,संपर्क सूत्र -तिलक संपादक युगदर्पण 9911111611,09911145678,09540007993 

        "अंधेरों के जंगल में,दिया मैंने जलाया है! इक दिया,तुम भी जलादो;अँधेरे मिट ही जायेंगे !!"- तिलक